सवा सेर गेहूँ कहानी का सारांश
‘सवा सेर गेहूं’ महाजनी सभ्यता से जुड़ी एक मर्मस्पर्शी एवं यथार्थवादी कहानी है। इस कहानी में शोषक वर्ग की रक्त-चूषक प्रवृत्ति की और संकेत किया है, जो जीवनपर्यन्त दलित वर्ग का शोषण करता है। इसी नाम यथार्थ को लेखक ने आंचलिक पृष्ठभूमि में संजोकर चित्रित किया है।
कहानी का सारांश इस प्रकार है-
एक गाँव में शंकर नाम का कुरमी किसान रहता था। वह बहुत ही सादा जीवन व्यतीत करने वाला सज्जन था। वह किसी प्रकार के लेन-देन में रुचि नहीं लेता था। छल प्रपंच से कोसों दूर था। जैसा मिला वैसा खाकर राम का नाम लेकर सो जाता था। वह साधु-महात्माओं का विशेष आदर करता था। साधु-महात्माओं को भगवान का अवतार मानता था। एक दिन संध्या समय एक महात्मा ने आकर उसके द्वार पर डेरा जमाया। घर में जी का आटा था। वह जौ का आटा स्वयं तो खा सकता था, परंतु परमात्मा के भक्त को जी का आटा कैसे खिलाता वह गाँव भर गेहूं के आटे के लिए चक्कर काटता रहा, परंतु कहीं से गेहूँ का आटा न मिला।
सौभाग्य से गाँव के विप्र महाजन के घर से उसे सवा सेर गेहूँ उधार मिल गया। उसकी स्त्री ने पीसा और भोजन बनाकर महात्मा जी को खिलाया। रात हो गयी थी। सभी सो गए। प्रातःकाल महात्मा जी आशीर्वाद देकर अपनी राह चल दिए। शंकर ने विप्र महाजन को सवा सेर गेहूँ के बदले में कुछ ज्यादा खलिहानी दे दी। अपनी समझ में उसने अपना उधार चुकता कर दिया था। विप्र ने भी कोई चर्चा नहीं की।
सात वर्ष बाद पारिवारिक परिस्थितियाँ परिवर्तित हुई। शंकर का भाई मंगल अलग हो गया था। एक साथ रहकर दोनों किसान थे, अलग होकर दोनों मजदूर हो गए। इस बंटवारे का शंकर को बहुत दुःख हुआ। बंटवारे ने उसका अन्तर्मन झकझोर दिया था। सात दिन उसने एक दाना भी नहीं खाया था। जेठ की गर्मी में दिनभर काम करता और रात को सो जाता था। एक अर्से बाद शंकर मजदूरी करके लौट रहा था। रास्ते में विप्र जी से मुलाकात हो गयी। विप्र जी ने टोककर कहा-शंकर तेरे यहाँ साढ़े पांच मन गेहूं कब के बाकी पड़े हुए हैं। और तू देने का नाम नहीं लेता, हजम करने का मन है क्या? शंकर के यह कहने पर कि मैंने तुम्हारा भर भी अनाज नहीं देना है। खलिहानी में मैंने अधिक अनाज दिया था। विप्र ने कहा कि कहीं लिखा-पढ़ी तो छटांक नहीं हुई थी। जो तुमने दिया था वह तो बकसीस थी, उसका कोई हिसाब नहीं। साढ़े पांच मन लिखा-पढ़ा है, वह तो तुम्हें देना ही होगा। अगर अब देते हो तो ठीक है, नहीं तो और भी बढ़ता रहेगा। शंकर मिन्नतें करने लगा।
विप्र जी ने शंकर को ईश्वर का भय याद दिलवाया और कहा-ब्राह्मण का ऋण लेकर मरेगा तो नरक में जाएगा। इस डर से शंकर ने ऋण वापस करने की हामी भर ली। परंतु शंकर के पास देने के लिए कुछ भी नहीं था। विप्र ने दस्तावेज बनाया और 60 रुपये ऋण के लिखे, जिस पर तीन रुपये सैकड़े का व्याज था। ऋण चुकाने के फिक्र में शंकर ने अधिक परिश्रम करना और कम खाना शुरू किया। चिलम-तम्बाकू सब बन्द कर दिया गया। कपड़े पहले ही त्याग की सीमा तक पहुंच गए थे, अब वह प्रकृति की न्यूनतम रेखाओं से आबद्ध हो गया था। आखिर साल के अन्त में उसके पास 60 रुपये जमा हो गए। उसने सोचा कि पंडित जी को इतने रुपये दे दूंगा और कहूँगा महाराज बाकी जल्दी वापस कर दिये जाएँगे। केवल 15 बाकी रह गए हैं, ये सब भी दो-तीन महीने में देने का वचन देता हूँ विप्र जी अपने पूरे रुपये लिए बिना नहीं माने।
Sawa Ser Kahani Summary
शंकर ने पन्द्रह रुपए के लिए सारा गाँव छान मारा, मगर किसी ने रुपये नहीं दिए, इसलिए नहीं कि लोगों को शंकर पर विश्वास न था बल्कि इसलिए कि कोई पंडित जी के शिकार को छेड़ने की हिम्मत नहीं कर सकता था। निराश होकर उसने मेहनत के पैसों से मौज-मस्ती करना आरम्भ कर दिया। अब काम से भी वह जी चुराने लगा था। तीन साल बीत गए विप्र जी के 15 रुपये अब 120 हो गए थे। वह अपनी झोपड़ी और बैन को ऋण के बदले में देना चाहता था, परंतु विप्र ने उसे सूद चुकाने के बदले अपने यहाँ मजदूर बना लिया। शंकर के सामने जीविका का प्रश्न खड़ा हो गया। वह अपने परिवार का पालन-पोषण कैसे करेगा? वस्तुतः सवा सेर गेहूँ के बदले शंकर के पैरो में गुलामी के बेड़ी पड़ गयी। उस अभागे को अगर किसी विचार से सन्तोष होता था तो यह था कि यह मेरे पूर्व जन्म का संस्कार हैं। उसकी स्त्री को वे काम करने पड़े, जो उसने कभी नहीं किये थे। बच्चे दाने-दाने को मोहताज हो गए, लेकिन शंकर यह सब देखने के सिवा कुछ नहीं कर सकता था। ये गेहूँ के दाने किसी देवता के श्राप की भांति आजीवन उसके सिर से न उतरे।
शंकर विप्र जी की 20 वर्ष तक गुलामी करने के पश्चात् इस दुस्तार समाज से कूच कर गया। 120 रुपये अभी भी उसके सिर पर सवार थे। विप्र जी ने उसके बेटे की गरदन पकड़ ली। बाप की मृत्यु के बाद बेटा विप्र जी का ऋणी हो गया।
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