रुबाइयाँ कविता व्याख्या : Rubaiya Kavita Vyakhya : फ़िराक गोरखपुरी

आज के इस लेख में हम रुबाइयाँ की सप्रंसग व्याख्या को पढ़ने जा रहें है। इसलिए यदि आप परीक्षा में अच्छे नंबर हासिल करना चाहते है तो आपको सभी कविताओं की व्याख्या आना जरुरी है। इस पोस्ट में हमने आपको सभी रुबाइयों की सप्रंसग व्याख्या को बताया गया है।

स्वाइयाँ कविता व्याख्या

आँगन में लिए चाँद के टुकड़े को खड़ी
हाथों पे झुलाती है उसे गोद-भरी
रह-रह के हवा में जो लोका देती है
गूँज उठती है खिलखिलाते बच्चे की हँसी

शब्दार्थ – चाँद का टुकड़ा = प्यारा बच्चा। गोद भरी = गोद में भरकर, आँचल में लेकर। लोका देती है = उछाल देती है।

प्रसंग – प्रस्तुत ‘रुबाई’ हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘आरोह भाग-2’ में संकलित ‘फ़िराक गोरखपुरी’ द्वारा रचित ‘रुबाइयाँ’ नामक कविता से अवतरित की गई है। इसमें कवि ने माँ के आँचल में खिलखिलाते बच्चे तथा माँ के वात्सल्य प्रेम का अनूठा चित्रण किया है।

व्याख्या – कवि का कथन है कि माँ अपने प्यारे बेटे को अपने घर के आँगन में लिए खड़ी है। वह अपने चाँद के टुकड़े को अपने आँचल में भरकर हाथों में झुला रही है। अर्थात् माँ अपने नन्हें कोमल बच्चे को अपने हृदय से लगाकर अपने आँगन में लिए खड़ी है तथा उसे अपनी बांहों में भरकर अपने हाथों पर झुला रही है। माँ अपने बच्चे को देखकर अत्यंत प्रसन्नता से भरी हुई हैं।

वह बार-बार अपने नन्हें बच्चे को हवा में उछालती है। जैसे ही माँ अपने बच्चे को हवा में उछालती है तो बच्चा खुश हो उठता है और उसकी खिलखिलाती हँसी संपूर्ण वातावरण में गूंज उठती है। कवि का कहने का अभिप्राय यह है कि अपनी माँ के हाथों में बच्चा खुश होकर खिलखिलाकर हँसने लगता है और उसकी हँसी सारे वातावरण को गुंजायमान कर देती है। लगता है बच्चे की खिलखिलाती हँसी के साथ वातावरण भी हँसने लगा हो।

नहला के छलके छलके निर्मल जल से
उलझे हुए गेसुओं में कंघी करके
किस प्यार से देखता है बच्चा मुँह को
जब घुटनियों में ले के है पिन्हाती कपड़े

शब्दार्थ – छलके हलके – हिलते-हिलते। निर्मल = साफ, स्वच्छ। गेसुओं में = बालों में। घुटनियों में = घुटनों में। पिन्हाती =पहनाती। 

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश  ‘आरोह भाग-2’ में संकलित कवि ‘फिराक गोरखपुरी’ द्वारा रचित ‘रुबाइयाँ’ से अवतरित है। इसमें कवि ने माँ का नन्हें कोमल बच्चे के प्रति वात्सल्य प्रेम अभिव्यक्त किया है।

व्याख्या – कवि कहता है कि माँ अपने नन, कोमल बच्चे को छलकते हुए निर्मल, स्वच्छ पानी में नहलाती है और उसे साफ स्वच्छ पानी से नहलाकर उसके उलझे हुए बालों में कंपी करती है। उन्हें संवारती है। जब माँ अपने नन्हें बच्चे को अपनी बाँहों में लेकर कपड़े पहनाती है तो बच्चा अपनी माँ को बड़े प्यार से देखता है।

माँ अपने चांद के टुकड़े को छलके-हलके साफ़ स्वच्छ जल में नहलाकर उसकी उलझी लटों को कभी से बार-बार संवारती है। तत्पश्चात् वह अपने नन्हें बच्चे को अपनी बांहों में लेकर कपड़े पहनाती है तो नन्हा कोमल बच्चा अपनी मां के चेहरे को बहुत लाड से देखता है।

दीवाली की शाम घर पुते और सजे
चीनी के खिलौने जगमगाते लावे
वो रूपवती मुखड़े पै इक नर्म दमक
बच्चे के घरौंदे में जलाती है दिए

शब्दार्थ – शाम = संध्या , सायंकालीन समय। पुते = साफ-सुथरे। रूपवती = रूप से सुंदर। मुखड़े = मुख पर। इक = एक। गर्म-दमक = हल्की चमक। घरौंदे में = मिट्टी के घर में , छोटे पर में। दिए = दीपक। 

प्रसंग – यह रुबाई ‘फिराक गोरखपुरी’ दवारा रचित ‘रुबाइयाँ’ से अवतरित है। इसमें गोरखपुरी ने दीवाली पर्व की शोभा की  सुंदर अभिव्यक्ति की है।

व्याख्या – कवि कहता है कि दीवाली के पावन पर्व की संध्या के समय सब पर लिये-पुते, साफ सुथरे तथा सजे-धजे होते हैं अर्थात दीवाली के पर्व के अवसर पर सब पर साफ-सुथरे सजे-धजे अत्यंत सुंदर दिखाई देते हैं। घर में रखे जगमगाते चीनी मिट्टी के सुंदर खिलौने सुंदर मुख पर एक हल्की चमक ले आते हैं। दीवाली के आने पर घरों में चीनी मिट्टी के सुंदर जगमगाते हुए खिलौने सुंदर मुख पर एक रौनक से आते हैं। इन खिलौनों को देखकर नन्हा बच्चा खुश हो उठता है। माँ दीपावली की संध्या को अपने नन्हें बच्चे के मिट्टी के छोटे घर में दीपक जलाती है। वह कोमल बच्चे का मिट्टी का घर भी दीपक की रोशनी से जगमगा उठता है।

Swaiyan Kavita Vyakhya

आँगन में दुनक रहा है ज़िदयाया है
बालक तो हई चाँद पै ललचाया हैं
दर्पण उसे दे के कह रही है माँ
देख आईने में चाँद उतर आया है

शब्दार्थ – ठुनक = ठिनकना, घूमना-फिरना, इधर-उधर डोलना। जिदयाया = जिंदादिल। हई = है ही। दर्पण = वह सोसा जिसमें चेहरा दिखता हो। आईने में= दर्पण में।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्य ‘आरोह भाग-2’ में संकलित ‘फ़िराक गोरखपुरी’ द्वारा रचित ‘रुबाइयाँ’ से अवतरित है। इसमें कवि नें  नन्हे बच्चे की चंचलता तथा माँ के वात्सत्य का चित्रांकन किया है। 

व्याख्या – कवि का कथन है कि नन्हा कोमल बच्चा धीरे-धीरे बड़ा होकर अपने घर के आँगन में जिंदादिली से इधर- उधर ठिनक रहा है। आँगन में इधर-उधर घूमते हुए जब वह चंद्रमा को देखता है तो वह बालक उस चाँद के प्रति ललचा उठता है। अर्थात् कवि का अभिप्राय है कि बच्चा जब अपने आँगन में इधर-उधर घूमते-फिरते हुए चंद्रमा की ओर देखता है तो उसकी और मोहित हो जाता है।

चाँद की सुंदरता उस बालक का मन मोह लेती है। इस कारण उस नन्हें बालक का मन दर्पण देकर उसे दर्पण में चंद्रमा को दिखाती है। अपने कोमल बच्चे को चंद्रमा लेने की हठ या ललचायी आँखों को देखकर मी अपने बच्चे को दर्पण में चंद्रमा दिखाकर बहलाना चाहती है और उसे दर्पण में चंद्रमा को उतारकर दिखाती है। उस चंद्रमा को लेने के लिए लालायित हो जाता है। बच्चा उस चंद्रमा रूपी खिलौने को पाना चाहता है। जब माँ अपने बच्चे की ललचाई आँखों को देखती है या बच्चा चंद्रमा को अपनी माँ से माँगने का हठ करने लगता है तब माँ अपने बालक को

रक्षाबंधन की सुबह रस की पुतली
छायी है. घटा गगन की हलकी हलकी
बिजली की तरह चमक रहे हैं लच्छे
भाई के है बाँधती चमकती राखी

शब्दार्थ – रस की पुतीली = आनंद को सौगात, मीठा बंधन। घटा= बादल। गगन = आकाश। लच्छे = राखी के ऊपर चमकदार लच्छे।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश ‘आरोह-भाग-2’ में संकलित कवि ‘फिराक गोरखपुरी’ द्वारा रचित ‘रुबाइयाँ’ नामक कविता से अवतरित किया गया है। इसमें गोरखपुरी ने रक्षा बंधन पर्व की मिठास और रस्म का मनोहारी चित्रण किया है।

व्याख्या – कवि रक्षा बंधन पर्व की पावनता का चित्रण करते हुए कहते हैं कि रक्षा बंधन त्योहार की पावन सुबह आनंद और मिठास की सौगात है अर्थात् रक्षा बंधन एक मीठा बंधन है। इसके सुबह ही आनंद की अनुभूति होने लगती है। रक्षा बंधन का पावन पर्व सावन मास में मनाया जाता है अतः इसके आते ही आकाश में हल्की-हल्की घटाएँ छाई हुई हैं। कहने का अभिप्राय है कि रक्षा बंधन के आने पर आकाश में काली घटाएँ छाने लगती हैं।

वर्षा आने लगती है। जिस प्रकार सावन में आकाश में छाए बादलों में बिजली चमकती है उसी तरह रक्षाबंधन के कच्चे धागों में लच्छे चमकते हैं जिसे बहनें प्रेम स्वरूप अपने अपने भाइयों को इन चमकती लच्छेदार राखियों को बाँधती हैं। रक्षा बंधन पर्व के अवसर पर राखी में लगे लच्छे बिजली की भाँति चमकते हैं और इन्हीं चमकतो राखियों को बहनें अपने भाइयों की कलाइयों में लंबी उम्र की दुआ हेतु बाँधती हैं।

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