बच्चों को स्वाधीन बनाओ निबंध का सार | Baccho Ko Swadhin Banao Nibandh

बच्चों को स्वाधीन बनाओ निबंध का सार

प्रस्तुत निबन्ध में मुंशी प्रेमचन्द बच्चों को स्वाधीन बनाने पर बल देते हुए कहते हैं कि आधुनिक परिवेश में पले-बढ़े बच्चे अपने मां-बाप से ज्यादा स्वाधीन प्रवृत्ति के होते हैं। बालकों को बलशाली बनाना जितना जरूरी है उतना ही जरूरी है उनको स्वाधीन बनाना। लेकिन माँ-बाप उनको स्वाधीनता की शिक्षा नहीं देते हैं। वे जो कुछ बनना चाहते हैं उन्हें बनने दें। माँ-बाप केवल वही शिक्षा देने की प्राथमिकता पर बल देते हैं जो उन्हें अच्छी एवं लाभप्रद जँचती हैं। परंतु बच्चों को प्रधानतः ऐसी शिक्षा देनी चाहिए कि वह जीवन में अपनी रक्षा स्वयं कर सकें अर्थात् वे स्वाधीन हो सकें।

प्राचीन काल में जो दबाव बच्चों की उच्छृंखलता पर काबू रखते थे, वे दबाव कारक तत्त्व-संयुक्त परिवार, परिचित जनों का दबाव और स्वभाव, पुराने नीति-व्यवहार, रीतिरिवाज आदि आधुनिक परिवेश में कमजोर पड़ चुके हैं। इसके विपरीत आधुनिक सिनेमा पत्र-पत्रिकाओं तथा समाचार पत्रों ने युवकों के मनोरंजन संस्थानों की प्रवृत्ति को बदला है। पहले युवकों में यह धारणा आम थी कि अपने स्वजानों और माँ बाप की आज्ञा का पालन किया जाए। बचपन से ही उनमें ये संस्कार एवं गुण पैदा होते थे। परंतु अंग्रेजी शिक्षा तथा विदेशी सत्ता आज्ञा मानने की बजाय उन्हें पराधीन बना रही है। विदेशी सत्ता के समक्ष आदर एवं आज्ञापालन के प्रदर्शन से कहीं जरूरी है युवकों को व्यक्तिगत विचारों तथा कार्यों की स्वाधीनता के प्रति जागरूक किया जाए।

नयी शिक्षा का अर्थ बताते हुए लेखक कहते हैं कि केवल आज्ञापालन ही जीवन का अंग नहीं है बल्कि नयी शिक्षा का यह प्रथम उद्देश्य होना चाहिए कि बच्चों में आत्मविश्वास को बढ़ाया जा सके। आत्मविश्वास उनमें अनेकानेक गुणों का समावेश करेगा। जो शिक्षा आज्ञा पालन के सिवा और कुछ नहीं सिखाती ऐसी शिक्षा माँ-बाप अपने बच्चों को नहीं देना चाहेंगे।

शिक्षा का दूसरा सिद्धान्त होना चाहिए कि माँ-बाप बच्चों को किसी कार्य के लिए बाध्य न करें अस्तु बच्चे जीवन में जो बनना चाहते हैं उन्हें बनने दें अपनी इच्छा बच्चों पर न थोपें माँ-बाप का कर्तव्य केवन इतना ही नहीं कि वे (बच्चे) केवल उनकी आज्ञा पालन ही सीखें बल्कि उनको इतना योग्य बना होना चाहिए कि वे अपने मार्ग को स्वयं निश्चित करें। जो शिक्षा उन्हें योग्य बनाने को उपयोगी सिद्ध होगी वही सफल शिक्षा होगी।

गृहस्थी को जनतन्त्र के तरीके से चलाया जाए यह तीसरा सिद्धान्त हैं। घर के प्रत्येक सदस्य को वह अधिकार होना चाहिए कि वह अपनी बात को वेझिझक रख सके। वह अपने विचारों को पूरे परिवार में व्यक्त कर सके। घर में तानाशाही नहीं होनी चाहिए। जिस घर में कोई कानून कायदा नहीं है वह बिखर जाता है। परिवार में अत्यधिक दबाव और अत्यधिक खुलापन दोनों की परिवार के लिए किसी भी दृष्टि से उचित नहीं बल्कि इन दोनों में सन्तुलन होना चाहिए। यानी कि पारिवारिक मसलों पर बच्चों की भी राय लेनी चाहिए। जिन बच्चों के माँ-बाप उनके साथ बुरा व्यवहार करते हैं वे अपने बच्चों के जीवन को कुचल रहे हैं। परिणाम यह हुआ कि वे अपने बच्चों को अपने से अलग कर रहें। इस व्यवहार के दुष्परिणाम दुनिया के सामने हैं।

जब बच्चों को यह एहसास होता है कि उनकी भी घर में सुनवाई होती है, उनको भी कुछ समझा जाता है तो वे परिवार के प्रति अपने कर्तव्य को समझने लगते हैं। सफल परिवार का सबसे बड़ा यही रहस्य है कि इस प्रवृत्ति को व्यवहार में लाया जाए। ऐसे परिवार में बच्चे अपने परिवार के सम्मान की रक्षा सदैव करेंगे।

परिवार में बच्चों का खुलापन कुछ लोगों को कड़वा अनुभव हो सकता है। परंतु यह केवल कड़वा है यह भी मान्य नहीं हो सकता। बालकों को कुमारावस्था में ही योग्य बना दिया जाए कि वे पैसे का मूल्य समझने लगें ताकि वे अपने खर्चों को कम करने लगें।

बच्चों में स्वाधीनता प्रदान करने के लिए यह आवश्यक है कि बालकों को भी कार्य करने के लिए अवसर प्रदान किए जाएं। जितना ज्यादा वे कठिनाइयों का सामना करेंगे उतना ही स्वाधीन होंगे। कठिन कार्यों से दूर रखकर हम उन्हें निष्क्रिय कर रहे हैं। जब वे अपने कार्य स्वयं करते हैं तो उन्हें आनंन्द का अनुभव होता है। विद्यालय से पूर्व यह कार्य घरों में होता है। इसलिए स्वाधीनता उन्हें सर्वप्रथम घर पर ही प्राप्त होनी चाहिए। सम्पन्न परिवारों में पलने वाले बच्चे अपने कार्य अपने नौकरों से करवाते हैं वस्तुतः इससे उनमें परतन्त्रता की भावना आ जाती है। स्वार्थ उनमें घर जाता है और स्वार्थी मनुष्य अपने स्वार्थ के लिए अपने ही भाइयों का जहित करने में भी हिचक महसूस नहीं करता।

जब बच्चे कोई काम करने की चेष्टा करते हैं तो उन्हें डाँटना नहीं चाहिए। अगर वे कोई थोड़ा बहुत नुकसान भी कर देते हैं, तो घबराना नहीं चाहिए। यही कार्य उनमें स्वाभाविक रचनात्मकता को जगाते हैं। काम करने से जो आत्मविश्वास उनमें पैदा होता है, वह पुस्तकों और उपदेशों में नहीं होता। वस्तुतः उनके कार्यों में अड़चन पैदा नहीं करनी चाहिए बल्कि उन्हें जीवन समर में कूदने के लिए उत्साहित एवं प्रोत्साहित करना चाहिए।

बच्चों में स्वाधीनता प्रदान करने का तात्पर्य यह कदापि नहीं कि बच्चे अपनी मनमानी करने लगें। बाहरी दबाव कम करने का अर्थ नहीं कि वे आत्मसंयम, आत्मविश्वास एवं आत्मनिर्णय जैसे स्वाभाविक गुणों का तिरस्कार करने लगें। बच्चों में यह विवेकशीलता होनी चाहिए कि वे प्रत्येक कार्य को उसके गुण-दोष की परख के बाद ही करें। यही दिशा उन्हें स्वाधीन बनने की ओर प्रेरित करती हैं।

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