ध्रुवस्वामिनी नाटक का नायकत्व PDF : नायिका प्रधान नाटक ध्रुवस्वामिनी

ध्रुवस्वामिनी नाटक का नायकत्व

आलोचकों में यह प्रश्न सदा से विवादास्पद रहा है कि ‘ध्रुवस्वामिनी’ नाटक में नायक कौन है? इस नाटक में पुरुष पात्रों में रामगुप्त और चंद्रगुप्त दो प्रधान पुरुषपात्र हैं और नारी पात्रों मैं ध्रुवस्वामिनी प्रधान पात्र है। नायक-संबंधी शास्त्रीय धारणा के अनुसार नायक बनने का अधिकारी वह पुरुष पात्र माना जाता है जो आरम्भ से अंत तक कथा को अपने साथ ले चले और अंत में फल प्राप्त करे। अन्य पात्रों की अपेक्षा उसका नाटक में सर्वाधिक महत्त्व होता है।

ऐसे नायक या नेता पात्र में संस्कृत आचार्यों ने उच्च गुणों का होना आवश्यक माना है। यथा उसे युवक, सुंदर, मधुर, नम्र, दक्ष, बुद्धिमान, वीर, उत्साही, दृढ, क्षमावान, प्रसिद्ध और तेजस्वी होना चाहिए। ऐसा पात्र प्रायः पुरुष ही होता था, इसलिए प्राचीन धारणा पुरुष को ही नायक मानने की थी।

परंतु आधुनिककाल में दृष्टिकोण बदला पुरुष और नारी में प्राचीन काल से चला आ रहा भेद कम हुआ। नारी भी पुरुष का स्थान पाने लगी। यही कारण है कि ‘यशोधरा’, ‘विष्णु प्रिया’ (मैथिलीशरण गुप्त) जैसे काव्य, ‘झांसी की रानी’ (वृन्दावन लाल वर्मा) जैसे उपन्यास तथा ‘ध्रुवस्वामिनी’ जैसे नाटक आदि रचनाएँ लिखी जाने लगीं, जिनमें नायिका की प्रधानता है। नायिका ही सब पुरुष और स्त्री पात्रों में प्रधान रहती है। ऐसी रचनाओं को नायिका प्रधान रचना भी कह देते हैं। इनमें नायिका अर्थात् सर्वप्रमुख नारी पात्र को ही नायक कहलाने का अधिकार प्रदान किया जाने लगा है।

‘जब हम ‘ध्रुवस्वामिनी’ नाटक पर विचार करते हैं, तो दो तथ्य हमारे सामने आते हैं। पहली बात तो यह कि यदि हम प्राचीन दृष्टिकोण से देखें तो पुरुष पात्रों में चंद्रगुप्त ही नायक बनने की योग्यता प्राप्त किए प्रतीत होता है क्योंकि रामगुप्त तो अयोग्य, मद्यप, क्लीव, कायर और विलासी है। वह तो नायक के स्थान पर प्रतिनायक ही बना हुआ है। न उसमें नायकोचित कोई गुण है, न ही वह अंत में फल का भोक्ता है। उससे अधिकार छीनने के लिए ही तो नाटक में सारा संघर्ष और प्रयत्न चलता है।

अतः रामगुप्त के नायक बनने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता। उसकी तुलना में चंद्रगुप्त में धीरोदात्त नायक के सभी गुण विद्यमान हैं। वह धीर, वीर, युवक, सुंदर, त्यागी, तेजस्वी, प्रतिभावान, क्षमाशील, विनम्र, दृढ़, प्रसिद्ध तथा उच्चकुल का योग्य पुरुष है। वह ही अपने साहस और वीरकर्म से शकराज पर विजय प्राप्त करता है। वही फल का भोक्ता है सामंतकुमार और परिषद् उसे ही रामगुप्त के स्थान पर सम्राट मानते हैं नाटक की नायिका ध्रुवस्वामिनी उसी से प्रेम करती है। कथा के आकर्षण का केन्द्र भी वही है और ध्रुवस्वामिनी के आकर्षण का केन्द्र भी वही है। प्रसाद जी ने रामगुप्त जैसे अयोग्य व्यक्ति के स्थान पर चंद्रगुप्त जैसे राष्ट्रनायक की प्रतिष्ठा का ही उद्देश्य अपनाया है। चंद्रगुप्त ही इस नाटक का नायक है। 

Dhruvswamini Natak Ka Nayaktav

परंतु दूसरे तथ्यानुसार यह नाटक नायिका प्रधान नाटक है, क्योंकि इसमें ध्रुवस्वामिनी न केवल नारी पात्रों में, अपितु पुरुष पात्रों में भी प्रधान स्थान रखती है। नाटक का आरम्भ उसी से होता है। साम्राज्य के मान-अपमान का संबंध भी उसी से जुड़ा है। वह आरम्भ से अंत तक कथा के गति-विकास की केन्द्र है। नाटक में विरोध और विद्रोह का स्थर भी उसी का सबसे ऊंचा है। यहाँ तक कि चंद्रगुप्त को भी वही प्रेरित करती है। तृतीय अंक में जब रामगुप्त चंद्रगुप्त को बंदी बना लेता है और चन्द्रगुप्त कुछ भी विरोध न कर विवश भाव से भाग्याचीन किंकर्तव्यविमूढ़ बना रह जाता है, तब ध्रुवस्वामिनी ही उसे प्रेरित करती हुई कहती है-

‘झटक दो इन लोह श्रृंखलाओं को यह मिथ्या डोग कोई नहीं सहेगा। तुम्हारा कुद्ध दुर्दैव भी नहीं।’

यहाँ आकर हमें मानना पड़ता है कि ध्रुवस्वामिनी कितनी शक्तिशाली है। शक-विजय के याद यही शक- दुर्ग की स्वामिनी बनी हुई है। कोमा उसी की आज्ञा से शकराज का शव प्राप्त करती है। रामगुप्त भी उसी की आज्ञा पाने का इच्छुक है। सामंतकुमार भी ध्रुवस्वामिनी का ही अधिकार मानते हैं। वे कहते हैं-

‘स्वामिनी! आपकी आज्ञा के विरुद्ध राजाधिराज ने निरीह शर्कों का संहार करवा दिया है।”

अंत में भी सब ‘राजाधिराज की जय’ के साथ ‘महादेवी ध्रुवस्वामिनी की जय’ के नारे लगाते हैं। नाटक में उसे फल की प्राप्ति होती है।

प्रसाद जी ने भी उसे ही महत्त्व देने के लिए इस नाटक का नाम ‘ध्रुवस्वामिनी’ रखा है। नारी की महत्त्वपूर्ण समस्या का उसी से संबंध है। पुरोहित उसी के पक्ष में अपनी व्यवस्था देता है। आरम्भ में खड्गधारिणी से लेकर तृतीय अंक में कोमा, पुरोहित आदि कई पात्रों का उसी से संबंध प्रकट हुआ है। ध्रुवस्वामिनी में साहस, धीरता, दृढ़ता, नत्रता, सुंदरता, तेजस्विता आदि उच्च गुण भी उसे नाटक का सबसे आकर्षक पात्र सिद्ध करते हैं।

इस प्रकार अंत में हम कह सकते हैं कि यदि केवल पुरुष को ही किसी कथा का नायक सिद्ध करने की परिपाटी न हो तो ‘ध्रुवस्वामिनी’ ही इस नाटक की नायक सिद्ध हो सकती है, क्योंकि नाटक में न केवल चंद्रगुप्त की अपेक्षा उसका किरदार अधिक उभर कर आया है, अपितु कथा के वास्तविक फल (चंद्रगुप्त) की भोक्ता भी वही है तथा चंद्रगुप्त के नायकोचित कार्य की वास्तविक प्रेरणा शक्ति भी वही है। साथ ही नाटक की मूल समस्या जिसका संबंध स्त्री-अधिकारों एवं स्वत्व से है, उसका केंद्र बिंदु भी वही है।

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