नशा कहानी का सारांश/सार | Nasha Kahani Summary : Premchand

नशा कहानी का सारांश

‘नशा’ मुंशी प्रेमचंद द्वारा रचित एक मर्मस्पर्शी कहानी है। इसमें लेखक ने एक गरीब विद्यार्थी पर वैभव तथा ऐश्वर्यपूर्ण जीवन का नशा चढ़ने और उतरने का स्वाभाविक चित्रण किया है। बीच-बीच में जमीदारों के ठाट-बाट, शोषण और आम जनता की आकांक्षाओं के प्रसंग आत्मकथात्मक शैली में प्रभावशाली ढंग से चित्रित किए गए हैं।

कहानी का सार इस प्रकार है-

लेखक एक मामूली क्लर्क का बेटा है, जो इलाहाबाद के एक छात्रावास में रहकर पढ़ता है। इसके साथ ईश्वरी नामक एक बड़े जमींदार का लड़का भी पढ़ता है। वे दोनों दोस्त हैं तथा अमीरी-गरीबी को लेकर बहस करते रहते हैं। लेखक जमींदारों की बुराई करता है तो ईश्वरी जमींदारों का पक्ष लेता है। लेखक के तर्कों के सामने ईश्वरी हार मान जाता है, किन्तु ईश्वरी को लेखक की ये सब बातें बुरी नहीं लगती। लेखक सोचता है कि अगर वह भी ईश्वरी के स्थान पर होता तो उसमें भी वही अवगुण उत्पन्न हो सकते थे।

दशहरे के अवकाश पर लेखक घर नहीं जाना चाहता, क्योंकि उसके पास किराये के लिए पैसे नहीं थे। वह ईश्वरी के एक बार कहने पर ही उसके घर जाने के लिए तैयार हो जाता है। गाड़ी को रात को जाना था, परंतु वे शाम को ही स्टेशन पर पहुंच गए। वहाँ उन्होंने रिफ्रेशमेंट रूम में भोजन किया। भोजन करते समय खानसामो ने ईश्वरी का खूब आदर-सत्कार किया, किन्तु लेखक की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया। ईश्वरी ने उन्हें पचास पैसे (आठ आने) टिप के रूप में दिए। वह खानसामों के अदब की खूब प्रशंसा करता तथा घर के नौकरों को जी भरकर कोसता। इस पर लेखक ईश्वरी से कहता है – यदि आप उन्हें भी आठ आने टिप में दे दें तो वे भी ऐसा ही करेंगे। गाड़ी आ गयी। वे दूसरे दर्जे में बैठे। लेखक ने ऐसे सुखद सफर का आनन्द प्रथम बार उठाया था।

प्रातःकाल गाड़ी मुरादाबाद पहुंच गयी। स्टेशन पर कई आदमी उनका स्वागत करने के लिए खड़े थे। दो भद्र पुरुष रियासत अली और रामहरख तथा पांच बेगार थे। रियासत अली के यह पूछने पर कि यह कौन है, तो ईश्वरी बताता है कि यह तो मेरे साथ इलाहाबाद में पढ़ते है। मेरे कहने पर यहाँ चले आये। वरना ये महात्मा गांधी के भक्त हैं। वैसे बड़े राजा हैं, ढाई लाख रुपये की रियासत है।

लेखक को अपनी यह झूठी प्रशंसा हास्यास्पद लग रही थी। बेगार उनके लिए घोड़े लाए थे। वे दोनों घोड़ों पर सवार हो गए। अन्ततः ईश्वरी का घर जा गया। घर क्या था मानो किला था। ईश्वरी ने लेखक का परिचय एक अमीर व्यक्ति के रूप में करवाया। थोड़ी देर में नाई उनके पांव दबाने लगे। लेखक के लिए यह प्रथम अवसर था, जब उसके पांव दबाए जा रहे थे। फिर भोजन का बुलावा आया।

दोनों ने स्नान किया। वह धोती स्वयं धोता था परंतु आज उसने वहीं छोड़ दी। लेखक ने सोचा था कि देहात में जाकर खूब पढ़ेंगे, लेकिन यहाँ तो सारा समय सैर-सपाटे और खेल-तमाशों में ही बीत जाता है। यहाँ जुबान हिलाने की जरूरत नहीं थी, सभी चीजें समय पर हाजिर हो जाती थीं। नहलाने के लिए नौकर, लेटे तो पंखा करने वाले अलग से। नाश्ते में जरा भी देर नहीं। इस प्रकार लेखक ईश्वरी से भी ज्यादा नाजुक मिजाज का बन गया।

एक दिन लेखक को नींद आ रही थी, परंतु नौकर बिस्तर लगाने न आया तो लेखक ने उसे खूब डांटा। इसी प्रकार शाम को लैम्प जलाने में ज़रा देरी होने पर रियासत अली की खूब खिंचाई की। वहाँ एक ठाकुरी था जो गांधी जी का परम भक्त था। उसे भी लेखक ने झांसा दिया कि जब स्वराज्य आने पर जमींदारी खत्म हो जाएगी। तब वह उसे अपना ड्राइवर नियुक्त कर लेगा। उस दिन ठाकुरी ने खूब भांग पी और अपनी पत्नी को खूब पीटा तथा महाजन से भी झगड़ा किया।

अब छुट्टियाँ समाप्त हो गयी थीं। इलाहाबाद लौटने का दिन आ गया था। कई लोग उन्हें छोड़ने स्टेशन पहुंचे। लेखक चाहता था कि वह भी उन्हें कुछ ईनाम दे, परंतु उसके पास पैसे न थे। गाड़ी में अत्यधिक भीड़ थी। किसी तरह वे तीसरे दर्जे में सवार हो गए। डिब्बा लोगों से ठसाठस भरा हुआ था। उस डिब्बे में सभी तरह के लोग थे। कुछ लोग अंग्रेजी शासन की प्रशंसा कर रहे थे। एक आदमी अपनी पीठ पर सामान की गठरी बांधे खड़ा था।

उसे कहीं सीट नहीं मिली थी। डिब्बे में अधिक गरमी होने के कारण वह बार-बार दरवाजे पर जाकर खड़ा हो जाता था। जाते-जाते उसकी गठरी लेखक की नाक से रगड़ जाती थी। लेखक को गुस्सा आ गया। उसने अमीरी के नशे में चूर होकर उस यात्री के मुंह पर दो तमाचे जड़ दिये। वहाँ बैठे लोगों ने लेखक को खूब भला-बुरा कहा। एक ने कहा- कोई बड़ा आदमी होगा तो अपने घर का होगा। मुझे इस तरह मारते, जो दिखा देता। वास्तव में उस यात्री का इतना बड़ा दोष नहीं था जितनी बड़ी उसे सजा दी गयी थी। लोगों ने व्यंग्य किये- क्या अमीर होकर आदमी इंसानियत बिल्कुल खो देता है। वहाँ बैठे सभी लोग कुछ न कुछ कह रहे थे। तभी ईश्वरी ने अंग्रेज़ी में लेखक को फटकारते हुए कहा- तुम कैसे मुर्ख हो, श्रीमान् । तब लेखक को अपना नशा उतरता हुआ अनुभव हो रहा था। उसे लज्जा का अनुभव हो रहा था।

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