काव्य हेतु का अर्थ / स्वरूप एवं संस्कृत आचार्यों के अनुसार काव्य हेतु

नमस्कार दोस्तों, आज के इस आर्टिकल में हम हिंदी काव्य शास्त्र के एक बहुत ही महत्वपूर्ण विषय काव्य हेतु के बारे में पढ़ने जा रहें है। Kavya Hetu के संदर्भ में विभिन्न विद्वानों ने अपने-अपने मत दिए है। काव्य हेतु को जानने से पहले आपको काव्य लक्षण को भी पढ़ लेना चाहिए।

काव्य हेतु का अर्थ

हेतु का शाब्दिक अर्थ है कारण, अतः ‘काव्य हेतु’ का हुआ काव्य की उत्पत्ति का कारण। किसी व्यक्ति में काव्य रचना का सामर्थ्य उत्पन्न कर देने वाले कारण काव्य हेतु कहलाते हैं। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि काव्य ‘कार्य’ है और हेतु कारण है।

काव्य हेतु

संस्कृत आचार्यों के अनुसार काव्य हेतु

1. आचार्य भामह

भामह के अनुसार गुरु के उपदेश से जड़ बुद्धि भी शस्त्र अध्ययन करने में समर्थ हो सकता है, किंतु काव्य तो किसी प्रतिभाशाली द्वारा ही रचा जा सकता है। 

“गुरुदेशादध्येतुं शास्त्रं जङधिमोडप्यलम्
काव्यं तु जायते जातु कस्यचित् प्रतिभावतः”

भामह ’प्रतिभा’ को काव्य का प्रधान हेतु स्वीकार करते हैं, किन्तु एक अन्य श्लोक में वे स्वीकार करते हैं कि ’’शब्दशास्त्र को जानने वालों की सेवा और उपासना करके, शब्द का तथा शब्दार्थ का ज्ञान करके तथा अन्य कवियों के कृतित्व का अध्ययन करके ही काव्य रचना में प्रवृत्त होना चाहिए।’’

भामह प्रतिभा के साथ-साथ व्युत्पत्ति एवं अभ्यास को भी काव्य हेतु में स्थान देने के पक्षधर हैं। इस प्रकार भामह जन्मजात प्रतिभा को काव्य हेतु में अधिक बल प्रदान करते हैं।

2. आचार्य दंडी

दंडी अपने ग्रंथ ‘काव्यदर्श’ में प्रतिभा, अभ्यास और लोकव्यवहार को काव्य हेतुओं के रूप में मान्यता दी है। 

“नैसर्गिकी च प्रतिभा श्रुतं च बहु निर्मलम्
आनन्दाश्चयाभियोगो अस्याः कारणं काव्य सम्पदा”

अर्थात् ’’नैसर्गिक प्रतिभा, निर्मल शास्त्र ज्ञान और बढ़ा-चढ़ा अभ्यास काव्य सम्पत्ति में कारण होते है।’’ नैसर्गिक प्रतिभा से उनका तात्पर्य जन्मजात प्रतिभा से है, जो ईश्वर प्रदत्त होती है। इस प्रतिभा को अर्जित नहीं किया जा सकता। प्रतिभा के अभाव में निम्नकोटि की काव्य रचना निरन्तर अभ्यास एवं शास्त्र ज्ञान से हो सकती है।

3. आचार्य वामन

वामन ने अपने ग्रंथ ‘काव्यालंकार’ में प्रतिभा को जन्मजात गुण मानते हुए इसे प्रमुख काव्य हेतु स्वीकार किया गया है। 

“कवित्व बीजं प्रतिभानं कवित्वस्य बीजम्” 

वे लोक व्यवहार, शास्त्रज्ञान, शब्दकोश आदि की जानकारी को भी काव्य हेतुओं में स्थान देते हैं। एक अन्य स्थान पर वे काव्य हेतुओं में प्रतिभा को कवित्व का बीज स्वीकार करते हैं जो जन्म-जन्मान्तर के संस्कार से शक्ति रूप में कवि में विद्यमान होती है। अभियोग, वृद्ध सेवा, अवेक्षण, अबधान आदि से ही उत्तम काव्य का निर्माण कर सकना सम्भव हो पाता है।

वामन ने ’प्रकीर्ण के अंतर्गत छह तत्त्वों को सम्मिलित किया था –

लक्ष्यज्ञता (काव्य-परिचय)
अभियोग (काव्य-रचना का अभ्यास)
वृद्ध-सेवा (गुरु-महत्त्व)
अवेक्षण (उचित शब्द-प्रयोग)
प्रतिभा
अवधान (चित्त की एकाग्रता)

4. आचार्य रुद्रट

ये प्रतिभा, व्युत्पत्ति व अभ्यास को काव्य के हेतु स्वीकार करते हैं उनके अनुसार काव्य के दो भेद हैं –

सहजा शक्ति (जन्म से)
उत्पाद्या शक्ति (उत्पत्ति द्वारा)

प्रतिभा के अतिरिक्त वे लोकव्यवहार, शास्त्रज्ञान, शब्दकोश आदि की जानकारी को भी काव्य हेतुओं में स्थान देते हैं। 

5. आचार्य मम्मट

आचार्य ’मम्मट’ ने अपने ग्रन्थ ’काव्यप्रकाश’ में काव्य हेतुओं के बारे में लिखते हुए कहा है कि –

“शक्तिर्निपुणता लोकशास्त्र काव्याद्यवेक्षणात्
काव्यज्ञशिक्षयाभ्यास इति हेतुस्तदुद्भवे”

अर्थात काव्य में तीन हेतु है।  शक्ति (प्रतिभा) लोकशास्त्र का अन्वेषण तथा अभ्यास। दूसरे स्थान पर वे यह भी कहते हैं की शक्ति काव्य का बीजसंस्कार है। 

6. पण्डितराज जगन्नाथ 

इन्होंने अपने ग्रन्थ ’रस गंगाधर’ में ’प्रतिभा’ को ही प्रमुख काव्य हेतु स्वीकार किया है। 

“तस्य च कारणं कविगता केवलं प्रतिभा”

इनके अनुसार  काव्य के तीन प्रमुख हेतु हैं –

प्रतिभा
व्युत्पत्ति
अभ्यास

काव्य हेतुओं का स्वरूप

1. प्रतिभा

प्रतिभा वह शक्ति है जो किसी व्यक्ति को काव्य रचना में समर्थ बनाती है। राजशेखर के अनुसार प्रतिभा है –

“सा शक्ति: केवल काव्य हेतुः”

भट्ट लोल्लट के अनुसार प्रतिभा वह है प्रज्ञा है जो नवीन विचार उत्पन्न करने वाली है।

“प्रज्ञा’ नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा”

आचार्य वामन का मत है कि प्रतिभा जन्म से प्राप्त संस्कार है तथा जिसके बिना काव्य रचना संभव नहीं है।

आचार्य अभिनव गुप्त ने प्रतिभा की परिभाषा देते हुए लिखा है –

“प्रतिभा अपूर्व वस्तु निर्माण क्षमा प्रज्ञाः”

वक्रोक्ति संप्रदाय के प्रवर्तक आचार्य कुंतक ने प्रतिभा उस शक्ति को माना है जो शब्द और अर्थ की अपूर्व सौंदर्य की सृष्टि करती है। अनेक प्रकार के अलंकारों व उक्ति वैचित्र्य आदि का विधान करती है।

आचार्य मम्मट ने प्रतिभा को एक नया नाम दिया है। वे इसे शक्ति कहते हैं और काव्य का बीज स्वीकार करते हैं जिसके बिना रचना संभव नहीं है।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है –

प्रतिभा काव्य का मूल हेतु है।

यह ईश्वर प्रदत्त शक्ति है।

प्रतिभा दो प्रकार की होती है।

1. कारयित्री प्रतिभा :- यह वह प्रतिभा होती है जिसके बल पर कवि कविता लिखता है।

2. भावयित्री प्रतिभा :- यह वह प्रतिभा होती है जिसके बल पर कोई पाठक कविता को समझता है।

2. व्युत्पत्ति

इसका शाब्दिक अर्थ है – निपुणता, पांडित्य या विद्वता। ज्ञान की उपलब्धि को भी व्युत्पत्ति कहा गया है। संस्कृत आचार्यों ने व्युत्पत्ति को काव्य हेतुओं में दूसरा स्थान दिया है। व्युत्पत्ति के बल पर ही कोई व्यक्ति यह निर्णय कर पाता है कि किस स्थान पर किस शब्द का प्रयोग उचित होगा। सच तो यह है कि प्रतिभा और व्युत्पत्ति समवेत रूप से ही काव्य के हेतु हैं। 

हिंदी आचार्य राजशेखर के अनुसार –

“उचितानुचित विवेको व्युत्पत्ति”

अर्थात उचित-अनुचित का विवेक ही व्युत्पत्ति है।

3. अभ्यास

काव्य निर्माण का तीसरा हेतु अभ्यास है। भामह ने लिखा है कि शब्दार्थ के स्वरूप का ज्ञान करके सतत अभ्यास द्वारा उसकी उपासना करनी चाहिए, साथ ही अन्य कवियों ने कृतित्व का अध्ययन भी करना चाहिए। आचार्य वामन ने भी अभ्यास को महत्व देते हुए लिखा है –

“अभ्यासेन ही कर्मसु कौशलं भावहिति”

आचार्य दण्डी ने तो अभ्यास को ही काव्य का हेतु माना है। हिंदी आचार्यों ने अभ्यास के महत्व को निम्न शब्दों में स्वीकारा है –

“करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान
रसरी आवत जात तें, सिल पर परत निसान”

सम्पूर्ण विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास ही काव्य के हेतु है; किन्तु प्रतिभा सर्वप्रमुख है जिसे व्युत्पत्ति व अभ्यास से निरंतर निखारा जा सकता है।

हिंदी आचार्यों के अनुसार काव्य हेतु 

रामचंद्र शुक्ल :- शुक्ल जी ने प्रतिभा को काव्य का मुख्य हेतु मानते हुए व्युत्पत्ति और अभ्यास को भी महत्व प्रदान किया है। 

सोमनाथ :- किसी कवि की रचना को श्रवण कर पुनः-पुनः अभ्यास करना काव्य का हेतु है। 

प्रतापसाहि :-  संस्कार,  वृति और अभ्यास को यह काव्य हेतु मानते हैं जो क्रमशः शक्ति, उत्पत्ति और अभ्यास के वाचक हैं। 

अज्ञेय :- इन्होंने प्रतिभा को ही मूर्धन्य स्थान दिया है। 

दिनकर :- इन्होंने प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास को ही सामूहिक रूप से काव्य सृजन का हेतु माना है। 

पाश्चात्य विद्वानों के अनुसार काव्य हेतु

प्लेटो :-  प्लेटो ने ‘प्रेरणा’ को काव्य हेतु माना है और यह मत प्रतिपादित किया है कि प्रेरणा के अभाव में कोई स्फुरण संभव नहीं है।

अरस्तु :- इन्होंने प्रतिभा को महत्व दिया है और यह कहा है कि प्रतिभा जन्मजात होती है।

रेस :- होरेस ने प्रतिभा के साथ साथ अभ्यास को भी महत्व दिया है। 

बेनदेतो क्रोचे :- कोच में स्वयं प्रकाश ज्ञान और बाह्य व्यंजन को महत्व देते हुए प्रतिभा और अभ्यास को काव्य हेतु के रूप में विशेष महत्व प्रदान किया है।