कबीरदास की साखियाँ व्याख्या | Kabirdas Ki Sakhiya Vyakhya Class 9th

Kabirdas Ki Sakhiya Vyakhya

कबीरदास की साखियाँ का सार

कबीरदास के दोहों को ही साखी कहा जाता है। उन्होंने अपनी इन साखियों में बताया है कि ईश्वर के साक्षात्कार के बाद मन रूपी मानसरोवर प्रेम और आनंद से परिपूर्ण हो गया है। इसमें जीव रूपी हंस मुक्ति रूपी मोती चुग रहा है। कबीरदास ने कहा है कि जब एक ईश्वर-प्रेमी दूसरे ईश्वर-प्रेमी से मिलता है, तब विषय-वासनाओं रूपी विष अमृत में बदल जाता है। यहाँ ईश्वरीय प्रेम की धारा प्रवाहित होने लगती है।

कबीरदास ने यह भी बताया है कि ईश्वर की भक्ति सहज में करनी चाहिए तथा संसार की चिंता नहीं करनी चाहिए। इस संसार में सभी लोग पक्ष और विपक्ष के विवाद में पड़कर ब्रह्म को भूल गए हैं। जो व्यक्ति निरपेक्ष होकर ईश्वर का भजन करता है, वह सच्चा संत कहलाता है। इसी प्रकार हिंदू और मुसलमान अथवा राम और ख़ुदा के विवाद में न पड़कर जो सच्चे मन से ईश्वर के नाम का स्मरण करता है, वही वास्तव में मनुष्य का जीवन जीता है।

जब मनुष्य सांप्रदायिक भावों को त्यागकर समन्वय की भावना को ग्रहण करता है तो उसके लिए काबा काशी और राम रहीम बन जाता है। इसलिए समन्वय अथवा समभाव अपनाकर ही ईश्वर की प्राप्ति की जा सकती है। मनुष्य उच्च कुल में जन्म लेने से नहीं, अपितु उच्च या सत्कर्म करने से ही ऊँचा या महान बनता है। बुरे कर्म करने वाला व्यक्ति कभी महान नहीं बन सकता।

कबीरदास की साखियाँ व्याख्या

मानसरोवर सुभर जल, हंसा केलि कराहिं।
मुकताफल मुकता चुर्गे, अब उड़ि अनत न जाहिं ॥

प्रसंग – प्रस्तुत दोहें कक्षा नोवी की पाठ्यपुस्तक क्षितिज भाग-1 में संकलित कविता सखियाँ से ली गयी है। इनके रचियता कबीरदास है। इन दोहों में कबीर ने ईश्वर के दर्शन के बाद मन के प्रेम और आनंद के बारे में बताया है।

व्याख्या – कवि कहता है कि मेरा हृदय रूपी मानसरोवर भक्ति रूपी जल से परिपूर्ण है अर्थात भरा हुआ है। उसमें जीवात्मा अपी हंस कीड़ाएं कर रहा है। वह कीड़ाएँ करता हुआ मुक्ति रूपी मोती चुग रहा है। वह उसमें इतना लीन है कि और उसे छोड़कर कहीं और नहीं जाएगा।

भावार्थ – कवि के कहने का भाव है कि ईश्वरीय ज्ञान होने पर आत्मा ईश्वर भक्ति में लीन रहती है।

प्रेमी ढूँढत में फिरों, प्रेमी मिले न कोइ।
प्रेमी कोो प्रेमी मिले, सब विष अमृत होइ ॥

व्याख्या – प्रस्तुत साखी में कवि ने ईश्वर-प्रेमी के गुणों एवं संगति के प्रभाव को अभिव्यक्त किया है। कवि कहता है कि मैं भगवान के प्रेमी को टूटता फिरता हूँ, किंतु मुझे कोई सच्चा प्रेमी नहीं मिला। जब भगवान के एक प्रेमी से दूसरा प्रेमी मिलता है तब विषय-वासनाओं का सारा विष अमृत रूप में बदल जाता है, क्योंकि तब ईश्वर के प्रेम की धारा बहने लगती है। भक्ति वासना को भी अमृत रूप में परिवर्तित कर देती है।

भावार्थ – कवि ने भक्ति के महत्त्व को स्पष्ट किया है। कवि ने स्पष्ट किया है कि ईश्वर-प्रेमी की संगति करने से मानव मन के बुरे भाव समाप्त हो जाते हैं और वह ईश्वर से प्रेम करने लगता है। इसलिए हमें ईश्वर-प्रेमी की संगति करनी चाहिए।

हस्ती चढ़िए ज्ञान की, सहज दुलीचा डारि ।
स्वान रूप संसार है, भूँकन दे झख मारि ॥

व्याख्या – प्रस्तुत साखी में कबीरदास जी ने ज्ञान-प्राप्ति की पद्धति और संसार के विषय में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा है कि हमें ज्ञान रूपी हाथी पर सहज पद्धति रूपी दुलीचा डालकर चढ़ना चाहिए अर्थात हमें प्रभु भक्ति सहज ढंग से करनी चाहिए। संसार में भक्ति के अनेक ढंग बताए गए हैं, हमें उनकी ओर ध्यान नहीं देना चाहिए। यह संसार तो कुत्ते की भाँति है, जो भीकता रहता है। हमें इसकी ओर ध्यान न देकर ईश्वर भक्ति में अपने मन को लगाए रखना चाहिए।

भावार्थ – कवि ने साधक को अपनी ज्ञान-साधना में लीन रहने का उपदेश दिया है उसे संसार की चिंता नहीं करनी चाहिए कि यह उसे क्या कहता है ?

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पखापखी के कारनै, सब जग रहा भुलान।
निरपख होइ के हरि भजै , सोई संत सुजान ॥

व्याख्या – प्रस्तुत साखी में कबीरदास उन्हें निष्पक्ष भाव या समभाव से ईश्वर की भक्ति करने का उपदेश दिया है कबीरदास का कथन है कि यह संपूर्ण संसार ईश्वर के अस्तित्व निर्गुण-सगुण के पक्ष-विपक्ष की उलझन में फंसा हुआ है इसलिए वह ईश्वर के सत्य स्वरूप को ही भूल गया है। जो लोग निष्पक्ष होकर ईश्वर का भजन करते हैं वही सुजान संत कहलाते हैं अथार्त सच्चे संत शांत एवं समभाव से ईश्वर में ध्यान लगाकर भक्ति करते हैं।

भावार्थ – कबीरदास के मतानुसार वाद-विवाद मत-मतांतर आदि को त्याग कर ही ईश्वर की सच्ची भक्ति संभव है।

हिंदू मुआ राम कहि, मुसलमान खुदाइ। 
कहै कबीर सो जीवता, जो दुहुँ के निकटि न जाइ।।

व्याख्या – प्रस्तुत साखी में कबीरदास ने बताया है कि हिंदू राम नाम रटकर अपने संप्रदाय (धर्म) की श्रेष्ठता के प्रतिपादन में मर मिटे तो मुसलमान खुदा को श्रेष्ठ बताने के प्रयास में नष्ट हो गए। कबीरदास के अनुसार जीवित व्यक्ति तो वे ही हैं जो दोनों नामों को एक ब्रह्म मानकर इस विवाद में नहीं पड़ते कि कौन श्रेष्ठ है।

भावार्थ – कवि ने हिंदू मुसलमान के राम और रहीम के विवाद को असत्य बताते हुए निष्पक्ष भाव से भक्ति करने पर बल दिया है।

काबा फिरि कासी भया, रामहिं भया रहीम। 
मोट चून मैदा भया, बैठि कबीरा जीम।।

व्याख्या – कबीरदास का कथन है कि मध्य मार्ग की प्रवृत्ति से मुसलमानों के तीर्थ स्थल काबा और हिंदुओं के तीर्थ स्थान काशी में कोई अंतर नहीं रह जाता। दोनों के आराध्य राम और रहीम भी एक ही होते हैं। इस प्रकार विभिन्न विरोधी विचारधाराएं या मत, जो पहले मोटे आटे के समान भद्दे लगते थे. मध्यम मार्ग के अनुसरण से सुंदर मैदै जैसे लगने लगे। इससे उत्पन्न आनंद का कबीर उपभोग कर रहा है।

भावार्थ – कबीरदास मध्यम मार्ग को अपनाने का उपदेश देते हैं उनके अनुसार राम और रहीम, काबा और काशी में कोई अंतर नहीं है।

ऊँचे कुल का जनमिया, जे करनी ऊँच न होइ। 
सुबरन कलस सुरा भरा, साधू निंदा सोइ।।

व्याख्या – प्रस्तुत साखी मैं कबीर दास जी ने बताया है कि यदि मानव के कर्म अच्छे नहीं हैं तो ऊंचे कुल में पैदा होने से क्या होता है अथार्त आदमी अच्छे कार्यों से बड़ा होता है। सोने का घड़ा यदि शराब से भरा हुआ है तो भी साधु जन उसकी निंदा करेंगे। उसे बुरा बताएंगे।

भावार्थ – कहने का भाव यह है कि व्यक्ति जन्म से नहीं अपितु गुणों से ऊंचा या महान होता है। अंत हमें सत्कर्म करने चाहिए।

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