वाख कविता का सार
ललद्यद की काव्य-रचना ‘वाख’ में मानव जीवन की क्षणभंगुरता पर प्रकाश डाला गया है। इसमें कवयित्री ने बताया है कि मावन जीवन अनित्य है,भंगुर है। उनकी दृष्टि में मानव जीवन कच्चे धागे के समान कमजोर है। वह कभी भी टूट सकता है। मानव जीवन की दशा कच्चे सकोरे की भाँति है, जो पानी लगने से नष्ट हो जाता है। दूसरे पद में कवयित्री ने अंतःकरण तथा बाह्य-इंद्रियों का निग्रह करने पर बल दिया है और जीवन में समभाव बनाए रखना आवश्यक बताया है। इसी से मानव जीवन का कल्याण संभव है। तीसरे पद में कवयित्री ने ईश्वर की प्राप्ति के लिए हठयोगी जैसी भक्ति-पद्धति की अपेक्षा एवं स्वाभाविक भक्ति-पद्धति पर बल दिया है। अंतिम पद में ललद्यदने ईश्वर की सर्वव्यापकता पर प्रकाश डाला है। उनके अनुसार ईश्वर कण-कण में बसता है।उनकी दृष्टि में हिन्दू और मुसलमान आदि का कोई भेदभाव नहीं है। सब ईश्वर की संतान है। आत्मज्ञान से ही हम स्वयं को और ईश्वर को पहचानते सकते हैं। अन्तः स्पष्ट है कि भक्तिकालीन अन्य संत कवियों की भाँति ही ललद्यदका काव्य भी मानव जीवन से जुड़ा हुआ हैं।
वाख कविता की व्याख्या
रस्सी कच्चे धागे की, खींच रही मैं नाव।
जाने कब सुन मेरी पुकार, करें देव भवसागर पार।
पानी टपके कच्चे सकोरे, व्यर्थ प्रयास हो रहे मेरे।
जी में उठती रह-रह हूक, घर जाने की चाह है घेरे।।
प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तिया कक्षा नोवी की पाठ्यपुस्तक क्षितिज भाग-1 में संकलित कविता वाख से ली गयी है। इसकी कवयित्री ललद्यदहै इस कविता में कवयित्री ने मावन जीवन व परमात्मा के बारे में बताया है।
व्याख्या – कवयित्री का कथन है कि मैं अपनी जीवन रूपी नाव को कच्चे धागों के समान अत्यंत क्षीण एवं कमजोर साधनों में खींच रही हूँ अर्थात संसार रूपी सागर से जीवन रूपी नाव की सांसारिक एवं नश्वर उपायों द्वारा पार ले जाने का प्रयास कर रही हूँ न जाने ईश्वर कब मेरी प्रार्थना सुनकर मेरी जीवन रूपी नाव को संसार रूपी सागर से पार करेंगे। मेरा यह जीवन मिट्टी के सकोरे के समान नाशवान एवं क्षणभंगुर है। जैसे कच्ची मिट्टी का सकोरा पानी लगने से गलकर टूट जाता है; ऐसा ही मेरा जीवन नश्वर है। इसलिए जीवन की इस नाव को खींचने के मेरे सारे प्रयास व्यर्थ प्रतीत होते हैं। संसार एवं जीवन की नश्वरता को देखकर मेरे हृदय में एक तीव्र पीड़ा उठती रहती है और अपने घर अर्थात ईश्वर के पास जाने की इच्छा सदैव घेरे रहती है।
भावार्थ – कवयित्री के कहने का भाव है कि मानव-जीवन नश्वर एवं क्षणिक है। उसके द्वारा संसार रूपी सागर को तब तक पर नहीं किया जा सकता जब तक ईश्वर की कृपा न हो।
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खा-खाकर कुछ पाएंगा नहीं,
न खाकर बनेगा अहंकारी।
सम खा तभी होगा समभावी,
खुलेगी साँकल बंद द्वार की।
व्याख्या – प्रस्तुत पंक्तियों में कवित्री ने मनुष्य को चेतावनी देते हुए कहा है कि इस जीवन में संसार के सुखों को भोगने पर कुछ भी प्राप्त नहीं होगा और यदि तु सांसारिक वस्तुओं अर्थात धन दौलत को जोड़ेगा तो तेरे मन में धन दौलत का अहंकार उत्पन्न हो जाएगा। कहने का अभिप्राय है कि इस सांसारिक सुखों को भोगना व धन दौलत को एकत्रित करना दोनों ही मनुष्य की मुक्ति के मार्ग में बाधक है.कवयित्री ने इनसे बचने के उपाय की ओर संकेत करते हुए कहा है कि मनुष्य को अन्तःकरण और बाह्य-इंद्रियों का निग्रह करना चाहिए। सांसारिक संसाधनों के प्रति समभाव बनाए रखना चाहिए तभी समभावी बन सकता है। ऐसा करने पर उसकी चेतना का विकास होगा और उसे मुक्ति प्राप्त होगी अर्थात मनुष्य को सांसारिक मोह माया के बंधनों से मुक्ति मिल सकेगी।
भावार्थ – कवयित्री के कहने का अभिप्राय है कि मनुष्य को सुख-दुख में समभाव बनाए रखना चाहिए इसमें ही उसकी मुक्ति संभव है।
आई सीधी राह से, गई न सीधी राह।
सुषुम-सेतु पर खड़ी थी, बीत गया दिन आह !
जेब टटोली, कोड़ी न पाई।
माझी को दूँ, क्या उतराई ?
व्याख्या – प्रस्तुत पद में कवित्री ने बताया है कि प्राणी संसार में सीधे मार्ग से आता है उस समय उसके मन में किसी प्रकार की कोई बुराई नहीं होती किंतु संसार में आकर वह ईश्वर विमुख मार्ग पर चलने लगता है और अंत तक उसी मार्ग पर चलता रहता है कवयित्री पुनः कहती है कि मैं हठयोग आदि विभिन्न उपायों के माध्यम से ईश्वर प्राप्ति का प्रयास करती रही किंतु संपूर्ण जीवन बीत गया पर ईश्वर की प्राप्ति नहीं हुई तत्पश्चात उसने अपनी जेब टटोली यथार्थ आत्मा लोचन किया तो पता चला कि मेरे पास तो अपनी मांझी(गुरु या ईश्वर ) को देने के लिए कुछ भी नहीं है।
भावार्थ – कहने का भाव कि मनुष्य संसार में से अपने साथ कुछ भी नहीं ले जा सकता इसलिए उसे सांसारिक लोभ अथवा मोह में नहीं बधना चाहिए।
थल-थल में बसता है शिव ही,
भेद न कर क्या हिंदू-मुसलमां।
ज्ञानी है तो स्वयं को जान,
वही है साहिब से पहचान ॥
व्याख्या – कवयित्री का कथन है कि ईश्वर (शिव) हर स्थान में विद्यमान है। प्रत्येक प्राणी के हृदय में उसका निवास है। इसलिए हिंदुओं व मुसलमानों के ईश्वर अलग-अलग नहीं हैं। ईश्वर को लेकर हमें ऐसा भेदभाव नहीं करना चाहिए। जो आत्मालोचन द्वारा स्वयं को जान लेता है, वही सच्चा ज्ञानी होता है। अपने-आपको अर्थात आत्मा को पहचानना ही ईश्वर की पहचानना है।
भावार्थ – कहने का भाव है कि ईश्वर सर्वव्यापक है और आत्मज्ञान से ही उसे प्राप्त किया जा सकता है।