सवैये का सार & व्याख्या | Raskhan ke Savaiye Vyakhya

Raskhan ke Savaiye Vyakhya

सवैयो का सार

रसखान कृत प्रथम एवं द्वितीय सवैये में कृष्ण और कृष्ण-भूमि के प्रति उनका प्रेम भाव व्यक्त हुआ है। प्रथम सवैये में रसखान ने अपना प्रेम भाव व्यक्त करते हुए कहा है कि यदि अगले जन्म में में मनुष्य बनूँ तो मेरा निवास ब्रजभूमि में हो, यदि मैं पशु बनूँ तो मैं नित्य नंद की गायों के बीच चरता रहूँ। यदि पत्थर बनूँ तो गोवर्धन पर्वत का पत्थर बनूँ जिसे श्रीकृष्ण ने धारण किया था यदि पक्षी बनूँ तो मेरा बसेरा यमुना के तट पर हो।

इतना ही नहीं, वे श्रीकृष्ण के द्वारा धारण की हुई लाठी व काली कंबली पर तीनों लोकों के राज को न्योछावर कर देना चाहते हैं। वे उनके साथ गाय चराने के लिए हर प्रकार को संपत्ति व सुख त्यागने के लिए तत्पर हैं। ये ब्रज के वनों और तालाबों पर करोड़ों सोने के बने महलों को न्योछावर कर देना चाहते हैं। तीसरे स्वैये में कवि ने श्रीकृष्ण के रूप-सौंदर्य के प्रति गोपियों की उस मुग्धता का चित्रण किया है जिसमें वे स्वयं कृष्ण का रूप धारण कर लेना चाहती हैं।

वे श्रीकृष्ण का मोर पंखों से युक्त मुकुट, उनकी माला, पीले वस्त्र, लाठी आदि सब धारण कर लेना चाहती है, किंतु उनकी मुरली को धारण करना उन्हें स्वीकार नहीं है। चौथे सवैये में श्रीकृष्ण की मुरली की धुन और उनकी मुस्कान के अचूक प्रभाव के सामने गोपियों की विवशता का मार्मिक वर्णन है।

सवैयो की व्याख्या

मानुष हौं तो वही रसखानि बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।
जौ पसु हौ तो कहा बस मेरो चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥
पाहन हौं तो वही गिरि को जो कियो हरिछत्र पुरंदर धारन।
जौ खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदी कूल कदंब की डारन॥

प्रसंग – प्रस्तुत दोहें कक्षा नोवी की पाठ्यपुस्तक क्षितिज भाग-1 में संकलित कविता सवैये से ली गयी है। इसके कवि रखसान हैं। कवि ने श्री कृष्ण के प्रति उनकी भक्ति का उल्लेख किया है।

व्याख्या – महाकवि रखसान का कथन है कि हे प्रभु ! यदि मैं अगले जन्म में मनुष्य बनो तो मेरा निवास ब्रज या गोकुल के ग्वालों के साथ हो और यदि मैं पशु बनो तो मेरा बस इतना ही कहना है कि मैं नित्य नंद की गायों में चरता रहूँ। हे ईश्वर ! यदि मैं पत्थर भी बनूँ तो उस गोवर्धन पर्वत का बनूँ जिसे श्री कृष्ण ने अपनी अँगुली पर धारण करके इंद्र के क्रोध से गोकुल की रक्षा की थी। हे प्रभु ! यदि मैं पक्षी बनूँ तो मेरा बसेरा यमुना तट के कदंब के पेड़ की शाखाओं पर हो।

भावार्थ – प्रस्तुत काव्य पंक्तियों में कवि की ईश्वरीय भक्ति एवं प्रेम को व्यक्त किया गया है। इस पद में उन्होंने अगले जन्म में श्रीकृष्ण की ब्रजभूमि में जन्म लेने की इच्छा प्रकट की है।

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या लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहूँ पुर को तजि डारौं।
आठहुँ सिद्धि नवौ निधि के सुख नंद की गाइ चराइ बिसारौं॥
रसखान कबौं इन आँखिन सौं, ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।
कोटिक ए कलधौत के धाम करील के कुंजन ऊपर वारौं॥

व्याख्या – प्रस्तुत पद में कवि ने श्रीकृष्ण और ब्रजभूमि के प्रति अपने गहन प्रेम को व्यक्त करते हुए कहा है कि श्रीकृष्ण की लकुटी (लाठी) और कंबली पर मैं तीनों लोकों के राज्य के सुख को न्योछावर कर दूँगा। नंद की गायों को चराने के लिए मैं आठों सिद्धियों और नौ निधियों के सुख को भुला दूँगा अर्थात त्याग दूँगा। रसखान कवि कहते हैं कि मैं अपनी आँखों से ब्रज के बाग-बगीचे और तालाबों को देखने के लिए अत्यंत व्याकुल हूँ। मैं ब्रज के वृक्षों के समूहों पर, जहाँ कभी श्रीकृष्ण खेलते व गायों को चराते थे, सोने से निर्मित करोड़ों भवन न्योछावर करता हूँ।

भावार्थ – कहने का भाव है कि उन्हें अपने आराध्यदेव श्रीकृष्ण की प्रत्येक वस्तु एवं स्थान अत्यंत प्रिय हैं। इससे उनके श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम व भक्ति का पता चलता है।

मोरपखा सिर ऊपर राखिहौं, गुंज की माल गरें पहिरौंगी ।
ओढ़ि पितंबर लै लकुटी बन गोधन ग्वारिन संग फिरौंगी॥
भावतो वोहि मेरो रसखानि सों तेरे कहे सब स्वाँग करौंगी।
या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरा न धरौंगी॥

व्याख्या – एक गोपिका अपनी सखी से कहती है कि वह श्रीकृष्ण के लिए कोई भी रूप धारण करने के लिए तत्पर है। गोपिका कहती है कि वह श्रीकृष्ण की भाँति ही मोर के पंखों से बना हुआ मुकुट सिर पर धारण कर लेगी। वह श्रीकृष्ण के गले में सुशोभित होने वाली घुंघचों से बनी माला को भी धारण कर लेगी। श्रीकृष्ण की भाँति ही हाथ में लाठी लेकर ग्वालों व ग्वालिनों के साथ जंगल में गायों के पीछे भी घूम लेगी।

रसखान ने बताया है कि गोपिका अपनी सखी से पुनः कहती है कि तुम्हारी कसम, मुझे श्रीकृष्ण बहुत ही अच्छे लगते हैं। तेरे कहने पर मैं हर प्रकार से श्रीकृष्ण का रूप धारण कर लूँगी। किंतु श्रीकृष्ण के होंठों पर लगी रहने वाली इस मुरली को अपने होंठों पर नहीं रखूंगी। यहाँ गोपिका की सौतिया भावना का चित्रण हुआ है। वह मुरली को अपनी दुश्मन और प्रतिद्वंद्वी समझती है।

भावार्थ – कवि के कहने का तात्पर्य है कि एक ओर गोपिका श्रीकृष्ण से प्रेम करती है और दूसरी ओर उनकी बांसुरी से सौत का भाव रखती है।

काननि दे अंगुरी रहिबो जबहीं मुरली धुनि मंद बजैहै।
मोहनी तानन सों रसखानि अटा चढ़ि गोधन गैहै तौ गैहै॥
टेरि कहौं सिगरे ब्रजलोगनि काल्हि कोऊ कितनो समुझैहै।
माइ री वा मुख की मुसकानि सम्हारी न जैहै, न जैहै, न जैहै॥

व्याख्या – एक गोपिका का कथन है, हे सखीन ! जब श्रीकृष्ण अपनी मुरली मंद-मंद ध्वनि में बजाएंगे, तब मैं अपने कानों में अंगुली डालें  रहूँगी ताकि मुरली की ध्वनि मुझे सुनाई ही न दे। फिर भले ही वह रस के सागर (श्रीकृष्ण) अट्टालिका पर चढ़कर मधुर तानों में गोधन राग में गीत गाते हैं तो गाते रहें। मैं तो ब्रज के सभी लोगों को पुकार पुकारकर कहती हूँ कि कल को कोई कितना ही समझाए किंतु मैं श्रीकृष्ण के मुख की मधुर मुस्कुराहट को नहीं समाल पाऊँगी।

भावार्थ – कवि के कहने का भाव है कि गोपिका श्रीकृष्ण की मधुर मुस्कान पर अत्यंत मोहित है।

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