विदाई-संभाषण पाठ का सार | Vidai Sambhshan Path Ka Saar PDF

विदाई-संभाषण पाठ का सार

‘विदाई-संभाषण’ बालमुकुंद गुप्त की सुप्रसिद्ध रचना ‘शिवशंभु के विद्वे’ में संकलित निबंध है। इस पाठ में लेखक ने भारत के वायसराय लॉर्ड कर्जन (जो 1899-1904 तथा 1904-1905 तक दो बार वायसराय रहे) के शासनकाल का उल्लेख किया है। लेखक ने जहाँ लॉर्ड कर्जन के शासनकाल में हुई भारतीयों की दयनीय दशा का यथार्थ चित्रण किया है, वहीं लॉर्ड कर्जुन की इंग्लैंड वापसी पर करारा व्यंग्य भी किया है। उन्हें भारत विरोधी नीतियाँ तैयार करने के लिए लज्जित किया गया है।

लेखक ने लॉर्ड कर्जन को संबोधित करते हुए कहा है कि आप भारत में हमेशा के लिए वायसराय के पद पर बने रहना चाहते थे। किंतु आपके शासन का अंत हो गया। इसका सीधा अर्थ है कि आपकी इच्छा से बड़ी भगवान की इच्छा है। आपकी पुनः भारत वापसी पर भारतवासी खुश नहीं थे। वे सदैव आपके जाने की कामना करते थे किंतु आज जब आप जा रहे हैं तो उनके मन में आपके प्रति करुणा की भावना जाग उठी है। विदाई का समय ही करुणाजनक होता है। भारतवर्ष में पशु-पक्षी तक विदाई का दुःख अनुभव करते हैं।

भला जहाँ के पशु तक विदाई का दर्द मानते हैं तो वहां के मनुष्य तो बिदाई का कितना दुःख मानते होंगे। लॉर्ड कर्जन के शासन का अंत दुःखमय हुआ सॉर्ड कर्जन इसे सुख का खेल समझता था उसे शासन के अधिकांश समय में सुख ही मिला था। वस्तुतः सारी सीता रचने वाला तो कोई और ही है। मनुष्य तो व्यर्थ में ही घमंड करता है। दिल्ली दरबार में ईश्वर व महाराज एडवर्ड के बाद उसी का स्थान था। उसकी कुर्सी सोने की थी और उसका हाथी सबसे ऊंचा और आगे भी था।

यह सब कुछ होते हुए भी उसे इंग्लैंड के एक जंगी लाट के सामने नीचा दिखना पड़ा। लॉर्ड कर्जन ने दूसरी बार भारतवर्ष में आकर ऐसी योजनाएं बनाई थीं जिससे अंग्रेज शासन यहाँ सदा के लिए बना रहे। किंतु उसने अपनी करतूतों से यहाँ ऐसी अशांति फैलाई कि उसके बाद जाने वाले शासकों का चैन समाप्त हो गया।

लॉर्ड कर्जुन ने कौंसिल में गैर-कानूनी बिल पास करवाकर तथा कनवोकेशन में अनुचित भाषण देकर अपनी धीरता और गंभीरता समाप्त कर ली। उधर विलायत में उन्होंने इस्तीफा देने की धमकी दे डाली जिसे स्वीकार कर लिया गया। भारत में अफसरों को उनके इशारों पर नाचना पड़ता था और उन्हीं के इशारों पर देश की शिक्षा को भारी धक्का लगा था। उन्होंने ही बंग देश के विभाजन की योजना बनाई। किंतु उनके अपने ही देश में एक सैनिक अधिकारी की नियुक्ति न हो सकी। परिणामस्वरूप उन्हें इस्तीफा देना पड़ा।

लॉर्ड कर्जुन की यह दयनीय एवं पतित दशा देखकर भारतवासी अत्यंत दुःखी हैं। अब उनका जाना निश्चित है। वे इस समयको कैसे गुजार रहे होंगे ये वे ही जानते होंगे। 

लेखक का कथन है कि बड़े-से-बड़े निरंकुश और तानाशाह शासकों ने भी अपनी प्रजा की बातों की ओर ध्यान दिया है, किंतु आपने भारतवर्ष में सदा मनमानी की आपने सदा आँखें बंद करके शासन चलाया जोकि अनुचित था। जो अपनी प्रजा का ध्यान नहीं रखता, वह कभी भी अच्छा शासक नहीं कहलवा सकता। नादिरशाह ने भी शरण में आए आसिफशाह की प्रार्थना पर कत्लेआम रोक दिया था। किंतु आपने भारतीयों की माँगों व प्रार्थनाओं को बार-बार ठुकराया। इस बात का उन्हें बहुत दुःख है।

लेखक का मानना है कि जब कोई शासक किसी भी देश में जाकर रहता है, उसका अन्न-पानी प्रयोग करता है तो उस स्थान के प्रति कृतज्ञ हो जाता है। उदाहरणार्थं नरसुलतान नाम का राजकुमार विपत्ति के समय नरवरगढ़ में रहा उसने नरवरगढ़ की भूमि का उपकार माना था और श्रद्धापूर्वक उस भूमि को प्रणाम किया था। इसलिए वहाँ की जनता उस राजकुमार को आज भी याद करती है।

लेखक लॉर्ड कर्जन से पूछता है कि क्या आप भी ऐसा विदाई भाषण दे सकते हैं जिसमें अपने स्वार्थ और अपनी धूर्तता का वर्णन करें तथा भारत की भोली-भाली जनता के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करें। क्या आप भारत के प्राचीन गौरव एवं यश को फिर से जगाने की कामना प्रकट कर सकते हैं? लेखक का मत है कि यदि लॉर्ड कर्जुन ऐसा करते हैं तो भारतीय जनता उनकी गलतियों को क्षमा कर देगी। किंतु लॉर्ड कर्जन इतना उदार हृदय नहीं है। अतः उसकी विदाई पर भारतवासियों का खुश होना उचित है।

विदाई-संभाषण शीर्षक पाठ का उद्देश्य

विदाई-संभाषण’ श्री बालमुकुंद गुप्त की सुप्रसिद्ध व्यंग्य रचना है। यह पाठ उनकी सुप्रसिद्ध पुस्तक ‘शिवशंभु के चिट्टे’ में संकलित है। इस पाठ में उन्होंने भारत के वायसराय लॉर्ड कर्जन (जो 1899-1904 तथा 1904-1905 तक भारत में दो बार वायसराय रहे) के शासनकाल में भारतीयों पर हुए अन्याय एवं अत्याचारों का उल्लेख किया है। इसके साथ तत्कालीन भारत वर्ष की दयनीय दशा का भी वर्णन किया गया है। लेखक ने जहाँ लॉर्ड कर्जन की भारत विरोधी नीतियों की पाठ में कटु आलोचना निडरतापूर्वक की है वहीं लॉर्ड कर्जन की इंग्लैण्ड वापसी पर भी करारा व्यंग्य किया है।

लेखक ने मानवीय संवेदना और मानवीय चेतना को भी यहाँ उजागर किया है, जैसे जब कोई भी शासक किसी भी देश में राज्य करते हुए वहाँ का अन्न-जल का प्रयोग करता है तो उसका नैतिक कर्तव्य बन जाता है कि यहां की जनता व प्राकृतिक साधनों का ध्यान रखे। किन्तु लॉर्ड कर्जन में ऐसे मानवीय गुण नहीं थे।

वह घमण्डी और अहकारी था किन्तु प्रभु की इच्छा के जागे कभी किसी का घमण्ड नहीं चलता। इंग्लैण्ड में दूसरी पार्टी की सरकार आ गई और वायसराय कर्जन को तुरन्त वापिस बुला लिया गया। उसे रातो-रात भारत छोड़कर भाग जाना पड़ा। इससे सिद्ध होता है कि घमंड का सिर सदा नीचा ही होता है। भारतीय जनता ने उसके अत्याचार सहने के पश्चात् उसे क्षमा कर दिया। यह है भारत के लोगों की असली महानता। यह दिखाना ही लेखक का मूल लक्ष्य एवं प्रेरणा देना है।

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